रोम – संसार के सामने पोषण की विकट समस्या है. हालांकि सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य की दिशा में बड़े कदम उठाए गए हैं जिसके तहत विकासशील देशों में अल्पपोषित लोगों के अनुपात को आधा करना है. लेकिन पोषण की समस्या अपने सर्वव्यापी और जटिल रूप में बनी हुई है. आखिरकार यह मसला महज अधिक भोजन उपलब्ध कराने से कहीं आगे जाता है. अल्पपोषण को कम करने के प्रयासों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि लोगों की सही प्रकार के पर्याप्त भोजन तक पहुंच हो – ऐसा भोजन जो उन्हें पोषण दे जो स्वस्थ, उत्पादकीय जीने के लिए जरूरी है.
सन् 1945 से खाद्य उत्पादन तीन गुना बढ़ा है. प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धता भी औसतन 40% बढ़ी है. केवल पिछले एक दशक में एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सब्जियों का उत्पादन एक-चौथाई बढ़ा है. इस क्षेत्र में दुनिया की तीन-चौथाई सब्जियां उगाई जाती हैं.
परंतु इन सब लाभों के बावजूद आज भी कम से कम 80.5 करोड़ लोग रोजाना भूखे पेट रह जाते हैं. इनमें से करीब 79.1 करोड़ लोग विकासशील देशों में रहते हैं. इससे कहीं अधिक लोग मौसमी रूप से या परिस्थितिवश भूखे रह जाते हैं. और दो अरब से ज्यादा लोग “छिपी हुई भूख” से पीड़ित हैं – यानी एक या अधिक सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी से.
भूख और अल्पपोषण वयस्कों के स्वास्थ्य और उत्पादकता को नष्ट करता है तथा उनके सीखने व काम करने की क्षमता को कम करता है. इसके अलावा इससे बच्चों का शारीरिक तथा मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है तथा वे बीमारी और अकाल मृत्यु के शिकार होने लगते हैं. पांच साल से कम उम्र के चार में से एक बच्चे की वृद्धि कुपोषण के कारण रुक जाती है.
जीवन के प्रथम 1000 दिनों (गर्भधारण से लेकर बच्चे की दूसरी वर्षगांठ तक) पर्याप्त पोषण अत्यंत जरूरी है. लेकिन उसके बाद भी भूख और अल्पपोषण बच्चों के वयस्क उम्र तक बढ़ने की संभावनाओं को कम करता है. अगर वे वयस्क हो भी जाएं तो भी वे अपनी पूरी क्षमता को प्राप्त नहीं कर पाते हैं.
विडंबना है कि दुनिया के अनेक भागों में व्यापक भूख मोटापे के लगातार बढ़ते स्तरों के साथ-साथ मौजूद है. 1.5 अरब से अधिक लोग सामान्य से ज्यादा वजन के हैं और उनमें से एक-तिहाई घोषित तौर पर मोटे हैं. ये लोग खासतौर पर असंचारी रोगों, यथा हृदय रोग, हृदयाघात और मधुमेह के ज्यादा शिकार होते हैं.
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लोकप्रिय धारणा के विपरीत, मोटापा का जुड़ाव भोजन की बहुतायत से कम और किफायती, विविध तथा संतुलित आहारों तक अपर्याप्त पहुंच से ज्यादा है. इस प्रकार अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के सामने जो चुनौती है वह है सही किस्मों के भोजन के पर्याप्त सेवन को सुनिश्चित करना.
इसका अर्थ है ऐसी भोजन प्रणालियां विकसित करना जो लोगों की जरूरतों के सापेक्ष ज्यादा अनुकूल हो, विशेषकर उन लोगों की जरूरतों के जो समाज से कटे हुए हैं और आर्थिक रूप से हाशिये पर हों. माताएं, छोटे बच्चे, वृद्ध तथा विकलांग जनों के अल्पपोषण के मकड़जाल में फंसने की ज्यादा आशंका रहती है. खाद्य असुरक्षा और अल्पपोषण के खातमे के प्रयासों में इन समूहों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए.
यह सुनिश्चित करने के लिए कि आज के प्रयासों से भावी पीढ़ियां भी लाभांवित हों वैश्विक खाद्य प्रणालियों को सुधारने वाली नीतियों में पर्यावरणीय निर्वहनीयता पर जोर दिया जाना चाहिए. विश्व नेतृत्वों को खासतौर पर प्रचलित खाद्य उत्पादन प्रक्रियाओं का पुर्नमूल्यांकन करना चाहिए, जो प्राकृतिक संसाधनों पर अनावश्यक दबाव डालती हैं, ताजे पानी के स्त्रोतों को खत्म करती हैं, जंगलों का अतिक्रमण करती हैं, मिट्टी की उर्वरता नष्ट करती हैं, प्राकृतिक मत्स्य भंडारों को नष्ट करती हैं और जैव-विविधता को कम करती हैं. इससे भी बुरी बात यह है कि भोजन के भंडारण और उपभोक्ताओं तक उसे पहुंचाने के पर्याप्त ढांचागत संरचना के अभाव में भोजन का भारी पैमाने पर नुकसान हो जाता है.
अवश्य ही पर्याप्त मात्रा में पोषण से भरपूर भोजन उत्पादन और पर्यावरण संरक्षण के बीच सही संतुलन कायम करना अनिवार्य है. पशुधन उत्पादन पर विचार करें जो अनेक प्रकार के भोजनों का स्त्रोत है यथा दूध, अंडे और मांस. इससे विकासशील देशों में पोषण से भरपूर आहार मिलने लगा है और लाखों लोगों को आजीविका मिली है. लेकिन अनिर्वहनीय उत्पादन प्रणालियों तथा दुनिया के कई भागों में अनाप-शनाप व अत्यधिक उपभोग से जलवायु परिवर्तन, रोगों के प्रसार और पोषण असंतुलन जैसे गंभीर नतीजे भी मिले हैं.
लेकिन सशक्त राजनैतिक प्रतिबद्धता के साथ वैश्विक खाद्य-उत्पादन प्रणालियों को बदला जा सकता है. इस दिशा में एक स्पष्ट कदम यह हो सकता है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी खाद्य-संबंधी कार्यक्रम, नीतियां और पहल पोषण और निर्वहनीयता तय करने वाली हों. इसी तरह भोजन-संबंधी शोध व विकास पोषण से भरपूर भोजन के उत्पादन और कृषि प्रणालियों के विविधीकरण को सुगम बनाने पर केंद्रित हों. पानी, जमीन, खाद तथा श्रम के और अधिक कुशल उपयोग के तरीके खोजना भी अनिवार्य है जिससे पर्यावरण पर कम से कम विपरीत प्रभाव पड़े और पारिस्थितिकीय निर्वहनीयता सुनिश्चित हो सके.
ऐसे उपाय खोजना भी उतना ही महत्वपूर्ण जो स्थानीय समुदायों को अपने आहार सुधारने में सक्षम बनाते हों. इसके लिए व्यापक जन-स्वास्थ्य एवं शिक्षा अभियान चलाना जरूरी है और सुनम्यता बढ़ाने के लिए सामाजिक संरक्षण तथा रोजगार व आमदनी सृजन के कदम भी जरूरी हैं.
अंत में, उत्पादकों व वितरकों को समर्थन और प्रोत्साहन दिए जाने चाहिए ताकि वे अपनी विद्यमान प्रणालियों में बदलाव ला सकें. आखिरकार, निर्वहनीयता की ओर कोई भी बदलाव किसानों की आजीविका की कीमत पर नहीं आ सकता है.
बेहतर पोषण की आर्थिक मंशा भी है. अपने सभी स्वरूपों में कुपोषण कम उत्पादन व अतिरिक्त खर्चों के कारण हर साल वैश्विक आर्थिक कल्याण में लगभग 5% की कमी लाता है. अनुमान है कि सूक्ष्मपोषण कमियों को दूर करने से मिले आर्थिक लाभों से लागत/लाभ अनुपात लगभग 1:13 तक बढ़ जाता है. यानी लागत से 13 गुना ज्यादा लाभ मिलता है.
रोम में आयोजित होने वाली पोषण पर द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फेरेंस एक ऐतिहासिक अवसर प्रदान करेगी जिससे बेहतर नीतियों और अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता के माध्यम से सभी के लिए पोषण बढ़ाने हेतु राजनीतिक प्रतिबद्धता को बल मिलेगा. भोजन तक पहुंच, पोषण और निर्वहनीयता में जरूरी निवेश करने में विफलता का नैतिक – और आर्थिक रूप से – कोई औचित्य नहीं है.
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While the Democrats have won some recent elections with support from Silicon Valley, minorities, trade unions, and professionals in large cities, this coalition was never sustainable. The party has become culturally disconnected from, and disdainful of, precisely the voters it needs to win.
thinks Kamala Harris lost because her party has ceased to be the political home of American workers.
रोम – संसार के सामने पोषण की विकट समस्या है. हालांकि सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य की दिशा में बड़े कदम उठाए गए हैं जिसके तहत विकासशील देशों में अल्पपोषित लोगों के अनुपात को आधा करना है. लेकिन पोषण की समस्या अपने सर्वव्यापी और जटिल रूप में बनी हुई है. आखिरकार यह मसला महज अधिक भोजन उपलब्ध कराने से कहीं आगे जाता है. अल्पपोषण को कम करने के प्रयासों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि लोगों की सही प्रकार के पर्याप्त भोजन तक पहुंच हो – ऐसा भोजन जो उन्हें पोषण दे जो स्वस्थ, उत्पादकीय जीने के लिए जरूरी है.
सन् 1945 से खाद्य उत्पादन तीन गुना बढ़ा है. प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धता भी औसतन 40% बढ़ी है. केवल पिछले एक दशक में एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सब्जियों का उत्पादन एक-चौथाई बढ़ा है. इस क्षेत्र में दुनिया की तीन-चौथाई सब्जियां उगाई जाती हैं.
परंतु इन सब लाभों के बावजूद आज भी कम से कम 80.5 करोड़ लोग रोजाना भूखे पेट रह जाते हैं. इनमें से करीब 79.1 करोड़ लोग विकासशील देशों में रहते हैं. इससे कहीं अधिक लोग मौसमी रूप से या परिस्थितिवश भूखे रह जाते हैं. और दो अरब से ज्यादा लोग “छिपी हुई भूख” से पीड़ित हैं – यानी एक या अधिक सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी से.
भूख और अल्पपोषण वयस्कों के स्वास्थ्य और उत्पादकता को नष्ट करता है तथा उनके सीखने व काम करने की क्षमता को कम करता है. इसके अलावा इससे बच्चों का शारीरिक तथा मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है तथा वे बीमारी और अकाल मृत्यु के शिकार होने लगते हैं. पांच साल से कम उम्र के चार में से एक बच्चे की वृद्धि कुपोषण के कारण रुक जाती है.
जीवन के प्रथम 1000 दिनों (गर्भधारण से लेकर बच्चे की दूसरी वर्षगांठ तक) पर्याप्त पोषण अत्यंत जरूरी है. लेकिन उसके बाद भी भूख और अल्पपोषण बच्चों के वयस्क उम्र तक बढ़ने की संभावनाओं को कम करता है. अगर वे वयस्क हो भी जाएं तो भी वे अपनी पूरी क्षमता को प्राप्त नहीं कर पाते हैं.
विडंबना है कि दुनिया के अनेक भागों में व्यापक भूख मोटापे के लगातार बढ़ते स्तरों के साथ-साथ मौजूद है. 1.5 अरब से अधिक लोग सामान्य से ज्यादा वजन के हैं और उनमें से एक-तिहाई घोषित तौर पर मोटे हैं. ये लोग खासतौर पर असंचारी रोगों, यथा हृदय रोग, हृदयाघात और मधुमेह के ज्यादा शिकार होते हैं.
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इसका अर्थ है ऐसी भोजन प्रणालियां विकसित करना जो लोगों की जरूरतों के सापेक्ष ज्यादा अनुकूल हो, विशेषकर उन लोगों की जरूरतों के जो समाज से कटे हुए हैं और आर्थिक रूप से हाशिये पर हों. माताएं, छोटे बच्चे, वृद्ध तथा विकलांग जनों के अल्पपोषण के मकड़जाल में फंसने की ज्यादा आशंका रहती है. खाद्य असुरक्षा और अल्पपोषण के खातमे के प्रयासों में इन समूहों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए.
यह सुनिश्चित करने के लिए कि आज के प्रयासों से भावी पीढ़ियां भी लाभांवित हों वैश्विक खाद्य प्रणालियों को सुधारने वाली नीतियों में पर्यावरणीय निर्वहनीयता पर जोर दिया जाना चाहिए. विश्व नेतृत्वों को खासतौर पर प्रचलित खाद्य उत्पादन प्रक्रियाओं का पुर्नमूल्यांकन करना चाहिए, जो प्राकृतिक संसाधनों पर अनावश्यक दबाव डालती हैं, ताजे पानी के स्त्रोतों को खत्म करती हैं, जंगलों का अतिक्रमण करती हैं, मिट्टी की उर्वरता नष्ट करती हैं, प्राकृतिक मत्स्य भंडारों को नष्ट करती हैं और जैव-विविधता को कम करती हैं. इससे भी बुरी बात यह है कि भोजन के भंडारण और उपभोक्ताओं तक उसे पहुंचाने के पर्याप्त ढांचागत संरचना के अभाव में भोजन का भारी पैमाने पर नुकसान हो जाता है.
अवश्य ही पर्याप्त मात्रा में पोषण से भरपूर भोजन उत्पादन और पर्यावरण संरक्षण के बीच सही संतुलन कायम करना अनिवार्य है. पशुधन उत्पादन पर विचार करें जो अनेक प्रकार के भोजनों का स्त्रोत है यथा दूध, अंडे और मांस. इससे विकासशील देशों में पोषण से भरपूर आहार मिलने लगा है और लाखों लोगों को आजीविका मिली है. लेकिन अनिर्वहनीय उत्पादन प्रणालियों तथा दुनिया के कई भागों में अनाप-शनाप व अत्यधिक उपभोग से जलवायु परिवर्तन, रोगों के प्रसार और पोषण असंतुलन जैसे गंभीर नतीजे भी मिले हैं.
लेकिन सशक्त राजनैतिक प्रतिबद्धता के साथ वैश्विक खाद्य-उत्पादन प्रणालियों को बदला जा सकता है. इस दिशा में एक स्पष्ट कदम यह हो सकता है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी खाद्य-संबंधी कार्यक्रम, नीतियां और पहल पोषण और निर्वहनीयता तय करने वाली हों. इसी तरह भोजन-संबंधी शोध व विकास पोषण से भरपूर भोजन के उत्पादन और कृषि प्रणालियों के विविधीकरण को सुगम बनाने पर केंद्रित हों. पानी, जमीन, खाद तथा श्रम के और अधिक कुशल उपयोग के तरीके खोजना भी अनिवार्य है जिससे पर्यावरण पर कम से कम विपरीत प्रभाव पड़े और पारिस्थितिकीय निर्वहनीयता सुनिश्चित हो सके.
ऐसे उपाय खोजना भी उतना ही महत्वपूर्ण जो स्थानीय समुदायों को अपने आहार सुधारने में सक्षम बनाते हों. इसके लिए व्यापक जन-स्वास्थ्य एवं शिक्षा अभियान चलाना जरूरी है और सुनम्यता बढ़ाने के लिए सामाजिक संरक्षण तथा रोजगार व आमदनी सृजन के कदम भी जरूरी हैं.
अंत में, उत्पादकों व वितरकों को समर्थन और प्रोत्साहन दिए जाने चाहिए ताकि वे अपनी विद्यमान प्रणालियों में बदलाव ला सकें. आखिरकार, निर्वहनीयता की ओर कोई भी बदलाव किसानों की आजीविका की कीमत पर नहीं आ सकता है.
बेहतर पोषण की आर्थिक मंशा भी है. अपने सभी स्वरूपों में कुपोषण कम उत्पादन व अतिरिक्त खर्चों के कारण हर साल वैश्विक आर्थिक कल्याण में लगभग 5% की कमी लाता है. अनुमान है कि सूक्ष्मपोषण कमियों को दूर करने से मिले आर्थिक लाभों से लागत/लाभ अनुपात लगभग 1:13 तक बढ़ जाता है. यानी लागत से 13 गुना ज्यादा लाभ मिलता है.
रोम में आयोजित होने वाली पोषण पर द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फेरेंस एक ऐतिहासिक अवसर प्रदान करेगी जिससे बेहतर नीतियों और अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता के माध्यम से सभी के लिए पोषण बढ़ाने हेतु राजनीतिक प्रतिबद्धता को बल मिलेगा. भोजन तक पहुंच, पोषण और निर्वहनीयता में जरूरी निवेश करने में विफलता का नैतिक – और आर्थिक रूप से – कोई औचित्य नहीं है.